मेरा पहला फ़िल्मी लेख "सा" (जयपुर की एक द्विमासिक पत्रिका) में प्रकाशित हुआ जिसे मैं आप सभी के समक्ष रख रहा हूँ। इस लेख को पत्रिका में सम्मिलित करने के लिए मैं श्री हनु रोज़ का आभारी हूँ। आप सभी के विचार अवश्य व्यक्त करें।
बाकी सभी दिंनो की तरह वो भी एक सर्दियों की आम सुबह थी। घर से बाहर निकला तो देखा गली के कुछ बच्चे खेलने में मग्न थे। वे सभी अपने अपने लट्टू चला रहे थे। सभी के अपने अपने तरीके थे। कुछ इस कला के महारथी थे तो कुछ शुरुआती दहलीज़ पर ही थे। मैं खुद भी लट्टू चलाना नहीं जानता था परन्तु मन के किसी कोने में इसे चलाने की इच्छा पनपी। सो देख कर मैंने भी पांच रुपये का निवेश करने का मानस बना लिया। जेब से पांच का सिक्का निकाल कर बच्चों को ही दे दिया और कहा की सबसे बढ़िया वाला लट्टू खरीद कर लायें।
कुछ देर बाद ही लट्टू मेरे हाथ में था। अब जो नयी बाधा सामने थी वो था इसे चला पाना। मन ही मन हमने एक लट्टू धुरंदर को गुरु माना और शिक्षा लेनी प्रारंभ कर दी। पहले सीखा किस प्रकार से रस्सी को लट्टू के इर्द गिर्द लपेटा जाये। रस्सी लपेटने के मुझे दो तरीके बताए गए। फिर सीखा की किस प्रकार से लट्टू को पकड़ा जाये और उसे फेंका जाये। फेकने के भी अलग अलग प्रकार देख कर मैं दंग था। खैर प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद मैंने हाथ आज़माना शुरू किया। मगर ये क्या, लट्टू छिटक कर इस तरह दूर भागा जैसे कोई तोता पिजरे से आज़ाद हुआ हो। नाचना तो दूर की बात थी।
एक बार, दो बार और फिर कई बार प्रयास किया परन्तु सब निरर्थक साबित हुए। हमने एक दो लट्टू महारथियों से पुनः आग्रह किया कि फिर से अपनी इस कला का प्रदर्शन करे ताकि मैं कुछ बारीकियां पकड़ सकू। कई बार उनके द्वारा चलाने कि प्रक्रिया को गौर से देखा। उनका एक भी वार खली नहीं जाता था। हर थ्रो पर लट्टू मुन्नी कि तरह नाचता और वाहवाही लूटता। और कभी कभी चलते लट्टू को वो अपनी हथेली में उठा लेते। वाकई बड़ा दर्शनीय नज़ारा होता था।
पुनः ठान कर हमने फिर से प्रयास करने का प्रण लिया। डोरी लपेट कर लट्टू जैसे ही छोड़ा नाचने कि बजाय दौड़ पड़ा। खैर जैसे तैसे काबू किया और फिर से प्रयत्न किया। मगर धाक के तीन पात वाली स्थिति हो गयी। लट्टू समझने को तैयार ही नहीं था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि कौन किसे नचाने की कोशिश कर रहा है। एकबारगी तो मुझे अहसास हुआ कि लट्टू चलाने के फेर में मैं कुछ ज्यादा ही नाच गया पर कमबख्त लट्टू बेहया, बेशर्म कहीं टस से मस नहीं हुआ।
मेरी ये संवेदना किसी आम आदमी से कम नहीं है। जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। आप शायद समझ सकते हैं। वो लट्टू लट्टू न लग कर मुझे प्याज़ या लहसुन लग रहा था। जिस प्रकार प्याज़ आम आदमी को रुला रहा है और लहसुन आदमी के सर चढ़ कर नाच रहा है और आम आदमी बेबस लाचार चाह कर भी उसे अपने हाथ में नहीं ले पा रहा है। यही आम आदमी कि रोज़मर्रा कि ज़िन्दगी का असल सच है। यही वो लट्टू है जो धुरंदर खिलाडियों (राजनीतिज्ञों) के हाथ में जा कर किसी अलाद्दीन के चिराग के जिन्न कि भांति एक आज्ञाकारी सेवक बन जाता है। उन्हें पूरा हक़ है वे जब चाहे जहाँ चाहे एवं जिस प्रकार से चाहें लट्टू को अपनी हथेलियों पर भी नचा सकते हैं। ये लट्टू नुमा भारतीय राजनीति एक पीड़ादायी कड़वा सच है जिसका घूँट हमें रोज़ पीना ही है। आखिर जीना है तो इस सच्चाई का सामना हमें न चाह कर भी करना ही होगा।